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कविता

और फिर आत्महत्या के विरुद्ध

कुमार अनुपम


यह जो समय है सूदखोर कलूटा सफेद दाग से चितकबरा जिस्म वाला रात-दिन तकादा करता है

भीड़ ही भीड़ लगाती है ठहाका की गायबाना जिस्म हवा का और पिसता है छोड़ता हूँ उच्छवास...

उच्छवास...

कि कठिनतम पलों में जिसमें की ही आक्सीजन अंततः जिजीविषा का विश्वास...

 

कहता हूँ कि जीवन जो एक विडंबना है गोकि सभ्यता में कहना मना है कहता हूँ कि सोचना ही पड़ रहा है कुछ और करने के बारे में क्योंकि कम लग रहा है अब तो मरना भी


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